प्रसंगवश : हे विधान! हम क्यों नहीं मानते...

प्रसंगवश : हे विधान! हम क्यों नहीं मानते…

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यशवंत धोटे

वसुधैव कुटुंबकम् और विश्व कल्याण का भाव, दोनों ही भारत की गौरवशाली परंपरा की धुरी हैं। इसी धुरी के कारण भारत विश्वगुरु बनने की ओर निरंतत अग्रसर है। भारत का लौकिक स्वरूप भले बदला हो, लेकिन वसुधैव कुटुंबकम् व विश्व कल्याण का इसका प्राणतत्व चिरस्थायी है।

इस बात को देश में सत्तासीन रहा हर दल मानते आ रहा है। भगवान बुद्ध व स्वामी विवकानंद जैसे महापुरुषों के उदाहरण देकर इस मंत्र को वे भी समझाते थे, जिनकी कुर्सी को सहारे की जरूरत थी और वे भी समझा रहे हैं जिन्हें सहारे की जरूरत नहीं है। पर क्या वो मजबूती ठीक नहीं जो कुछ बुरे की आशंका मात्र से खुद को लचीला कर कर दे या कुछ अच्छे की आहट से भी खुद को परिस्थितिनुसार ढाल ले? इन दिनों कुछ मुद़्दों को लेकर चल रहे विरोध प्रदर्शनों को लेकर ये बातें व सवाल और प्रासंगिक हो जाते हैं।

लोकतंत्र में विपक्ष के साथ ही जनता को भी हक है कि वह किसी मुद्दे पर अपनी असहमति प्रकट करने शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन करें, लेकिन मौजूदा परिस्थियां ऐसी प्रतीत नहीं हो रहीं। इन विरोध प्रदर्शनों के दौरान हम आए दिन हिंसा की खबरों से भी दो-चार हो रहे हैं। विषय इतना संवेदनशील है कि कहा नहीं जा सकता कि इस सूरते हाल के लिए आखिर जिम्मेदार कौन है।

हां कुछ लोग जरूर हैं जो बड़ी बेबाकी से इन मुद्दों को संविधान विरोधी बता रहे हैं वहीं कुछ ऐसे भी हैं जो इन्हें राष्ट्रहित का बताकर अपनी राय रखते नजर आ रहे हैं। दूसरे शब्दों में लेफ्ट व राइट के साथ कदमताल करते नजर आ रहे हैं। हो सकता है कि उन्होंने इन मुद्दों का बारीकी से अध्ययन किया हो।

दल विशेष से ताल्लुक रखने वालों को अध्ययन की दरकार नहीं है क्योंकि राजनीति में सब जायज है।… लेकिन किसी दल विशेष के कहने पर बिना अध्ययन आम नागरिक विरोध या समर्थन के बहाने हिंसा पर आमादा हो जाए तो यह जरूर चिंतनीय है।

अंग्रेजी के दो समान व दो अलग-अलग अक्षरों से मिलकर बने इन मुद्दों के शीर्षकों का उल्लेख नहीं करना चाहूंगा, ताकि ये न समझा जाए कि लेफ्ट व राइट के साथ कदमताल करने वालों की फेहरिस्त में एक और नाम जुड़ गया। इसकी चेष्टा किसी गैर राजनीतिक व्यक्ति या संस्था से तब ही अपेक्षित है जब उसे इन मुद्दों को लेकर विस्तृत अध्ययन सामग्री उपलब्ध कराई गई हो और फिर उस व्यक्ति विशेष ने उसका अवलोकन भी किया हो। बहरहाल, जो दृष्टिगोचर है उसे शब्दों का रूप न दे पाना भी पेशे के साथ न्याय नहीं माना जाएगा।

इस सूरते हाल में एक चीज, जो दोनों धाराओं में बहने वाले लोग कह रहे हैं वो उन पर भी लागू होती है- विधान की अनदेखी। इसका स्तर ‘कम-ज्यादा, ‘पहले आपने-फिर मैंने’ वाला हो सकता है। यदि किसी की नजर में कोई चीज व्यवस्था का उल्लंघन कर बनाई गई है तो उसकी उसपर असहमति जायज है। लेकिन असहमति को विरोध का रूप देना तब और अच्छा माना जाएगा जब उस चीज ने काम करना शुरू कर दिया हो।

‘आधार’ की संकल्पना से लेकर उसे अमल में लाने आज तक चली आ रही कवायदों में हम कई विरोध व कानूनी लड़ाइयां देख चुके हैं। सवाल उठे आज भी उठ रहे हैं। हालांकि मौजूदा मुद्दे आधार की तुलना में काफी गंभीर हैं। और यदि नहीं है तो लेफ्ट-राइट के प्रणेताओं की ओर से ऐसा बनाया जा रहा है।

इसे रोकने की जिम्मेदारी उनकी ज्यादा लगती है जिन्हें सहारे की जरूरत नहीं है। अलबत्ता वे ही रोक सकते हैं। पर अफसोस कि उनके बयानों में स्पष्टता नहीं दिखाई दे रही। ‘…इस पर कोई बात हुई ही नहीं’ व ‘क्रोनालॉजी है’ जैसे वाक्यांशों की इस संदर्भ में चर्चा की जा रही है।

नतीजा ये हुआ कि विपक्ष को इस मुद्दे को भुनाने का अच्छा अवसर मिल गया। वहीं जो लोग इन मुद्दों को लेकर पहले ही नाराज चल रहे थे उनकी नाराजगी और बढ़ गई। नतीजे हिंसा के रूप में सामने आ चुके हैं और आ रहे हैं। पहले विरोधी तोड़-फोड़ कर चुके, अब समर्थक फायरिंग कर रहे।’ और न जाने आगे क्या होगा!

जब हम ‘सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चित् दु:ख भाग् भवेत्’ की बात करते हैं तो हमारी जिद भी इस श्लोक को चरितार्थ करने वाली होनी चाहिए। दुनिया का पथ प्रदर्शक बनने का सामथ्र्य रखने वाले भारत की ओर दुनिया इसी नजरिए से देखती है।

वसुधैव कुटुंबकम् का प्राणतत्व प्राप्त भारत से दुनिया यह भी उम्मीद नहीं करती कि वह किसी एक पीड़ित को अपनाकर पराए से अपने बने निर्दोष को साथ छोड़ने के लिए कह दे। वो भी तब जब पराए से अपना बना वो निर्दोष यहां अपना परिवार चलाने के साथ ही अर्थव्यवस्था में योगदान दे रहा हो।

रहा सवाल आपराधिक प्रवृत्ति वालों का तो यह सर्वविदित है कि यह किसी के माथे पर लिखा नहीं होता। ताजा उदाहरण बीते दिनों जम्मू कश्मीर से गिरफ्तार एक डीएसपी है, जिसे कभी राष्ट्रपति पदक से नवाजा जा चुका था।

इसलिए लेफ्ट-राइट की धारा में बहने वालों को अपने आवेश पर नियंत्रण रखना होगा। भारत के कूटनीतिक हितों की रक्षा के साथ ही इसकी महानता को भी अक्षुण्ण रखने समानांतर कदम उठाने होंगे। फिर इसे गौतम, गांधी का कहने में नए आध्यात्म व अजेय अलौकिक शक्ति का अहसास होगा- ऐसी शक्ति जो सत्य के बल पर बाहुबलियों से सज्ज सहस्त्र कोटि सेनाओं का भी सामना करने में सक्षम होगी।
वैसे भी, ये विश्वगुरु बनने की ओर अग्रसर भारत का ही ज्ञान है- बाल न बांका कर सके जो जग बैरी होय।

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