प्रसंगवश - कोरोना संकट: तो क्या भारत का भूगोल और सामाजिक विज्ञान भूल गए हम? |

प्रसंगवश – कोरोना संकट: तो क्या भारत का भूगोल और सामाजिक विज्ञान भूल गए हम?

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यशवंत धोटे

 कोरोना जैसी वैश्विक महामारी में अपनी अक्षमता या यूं कहे पाखंड छुपाने की नीयत से भारत के राजनीतिक दल एक दूसरे पर राजनीति करने के आरोप लगाते हैं तो बड़ा हास्यास्पद लगता है। इनके बयानों से महामारी से पीड़ित जनता के गहरे जख्मों पर नमक छिड़कने का आभास होता है। फिर ये दल पूजा,पाठ,दान,पुण्य,भजन,कीर्तन,पूजन,आरती और जयकारे लिए थोड़ी बने हैं। यह बात अलग है कि इस विधा में कुछ पाखंडी परोक्ष अपरोक्ष रूप से जुड़ गए हैं। लेकिन राजनतिक दल जिसके लिए बने हैं वह काम तो करेंगे ही ना।

वैसे भी इस समय जो भी राजनीतिक दल गरीबी, बेकारी,भूखमरी, धर्म निरपेक्षता, समाजवाद, लोकतंत्र,पलायन, भ्रष्टाचार के वाजिब आकंड़ों और तर्कों के साथ बात करेगा उसे देशद्रोही दल माना जाएगा सोशल मीडिया पर ट्रोल किया जाएगा, क्योंकि हमारा देश बदल रहा हैं। सोशल मीडिया का आभामंडल हमें सब कुछ हरा- हरा दिखा और महसूस कराने की कोशिश कर रहा है। अपनी नाकामी छुपाने का पाखंड देखिए कि अब हम महामारी को भी मजाक बना सकते हैं इससे पहले ऐसा नहीं था। माना कि कोरोना वायरस नाम की यह कथित कृत्रिम वैश्विक महामारी धरती पर पहली बार आई है लेकिन संक्रमण की आपदाओं से निपटने का विज्ञान तो कई सौ साल पुराना हैं।

130 करोड़ की आबादी वाले देश का भूगोल और सामाजिक विज्ञान कोई भी छात्र आठवीं कक्षा के बाद से पढ़ना शुरू कर देता है। सोशल मीडिया और सूचना तकनीकी के इस दौर में हर तीसरा आदमी यह जानता है कि देश की 70 फीसदी आबादी कृषि क्षेत्र से जीवन यापन करती है। खेतीबाड़ी के कामकाज खत्म होने के बाद काम की तलाश में छोटे किसान और खेतिहर मजदूर शहरी क्षेत्रों में जाते हैं और फिर खेती बाड़ी के काम के लिए वापस गांव आते हैं। इसे सरकारी भाषा में पलायन कहते है जिसे कोई भी सरकार नहीं मानती।

देश के दोनों प्रमुख राजनीतिक दलो के कर्णधार जानते हैं कि देश में 45 करोड़ से अधिक मजदूर हैं जिसमें रजिस्टर्ड और अनरजिस्टर्ड शामिल हैं। हर साल अलग अलग तीज त्यौहारों पर देश के महानगरों से चलने वाली सैकड़ों विशेष ट्रेनों में ये मजदूर अपने घर पिछले कई सालों से आ जा रहे हैं। कोरोना के संभावित आगमन को लेकर सरकारें जब अपने सिपहसालारों के साथ  लाकडाउन पर रायशुमारी कर रही थी तब क्या किसी को भी इस बात का भान नहीं था कि इस  दरम्यान मजदूरों के विस्थापन की समस्या कोरोना की महामारी से ज्यादा खतरनाक हो सकती है।

उसी समय तीन दिन का समय देकर सभी मजदूरों को अपने घर जाने दिया होता तो आज देश भर की सड़कों पर भूखे प्यासे छोटे -छोटे बच्चों के साथ चिलचिलाती धूप में पैदल चल रहे मजदूरों के चित्र नही दिखते, और न ही कोई मालगाड़ी रेलवे पटरी के किनारे से अपने घर जाने के लिए निकले मजदूरों को रौंधती।  

इन चित्रों का सरकारों की सेहत पर भले ही कोई असर न हों लेकिन आम जन मानस विचलित है,अजीब सा डर है, और राजनीतिक दल एक दूसरे पर राजनीति करने के आरोप लगा रहे हैं। दरअसल लॉकडाउन लगाया ही इसलिए था कि महामारी का प्रभाव कम हो, लेकिन हो उल्टा रहा है मरीज बढ़ रहे हैं साथ ही मरने वाले भी। अब दलगत राजनीति से ऊपर उठकर पीडि़तों के साथ खड़ा होने का अवसर है। लेकिन सत्ता प्रतिष्ठानों से जुड़े लोगों को यह जान लेना चाहिए कि राजनीति करने के लिए भी जनता चाहिए जब जनता ही न होगी तो राजनीति किससे और किसके लिए करोगे?


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