हार के बाद रार

हार के बाद रार

कांग्रेस  की देशव्यापी शिकस्त से पस्त कांग्रेस शासित राज्यों में अंतर्कलह के जो सुर तेज हो रहे हैं, उनका उभरना स्वाभाविक है। यूं तो केंद्रीय नेतृत्व ही पार्टी पराभव व दिग्गजों के धराशायी होने से उबर नहीं पाया है। नेतृत्व का प्रश्न व इस्तीफा प्रकरण का पटाक्षेप अभी शेष है। जहां तक हरियाणा, पंजाब व राजस्थान में पार्टी संगठन व सरकार में जारी अंतर्कलह का सवाल है तो उसके बीज आम चुनावों में अप्रत्याशित हार में छिपे हैं। वैसे भी जीत के तमाम दावेदार हो सकते हैं मगर हार तो अनाथ होती है। उसकी जवाबदेही तय करने के लिये आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला जारी रहना स्वाभाविक है। राजस्थान के कांग्रेसी कैसे स्वीकार करेंगे कि बीते साल दिसंबर में संपन्न चुनावों में सरकार बनाने लायक आंकड़ा जुटा ही लिया था और कुछ महीनों के बाद राज्य की सभी 25 सीटें हाथ से निकल गईं। कांग्रेस कार्यसमिति की दिल्ली में हुई बैठक में राजस्थान के मुख्यमंत्री के पुत्र-मोह पर सवाल उठने के बाद राजस्थान कांग्रेस में अंतर्कलह मुखर हो उठी और निशाने पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत आ गए। उन्होंने सचिन पायलट की जवाबदेही तय करने की बात कर दी। जाहिर है पराजय का ठीकरा एक-दूसरे के सिर फोडऩे की कवायद जारी है। कमोबेश हरियाणा में भी इसी तरह का घटनाक्रम दोहराया जा रहा है। हरियाणा में सभी दस सीटें भाजपा की झोली में चले जाने का मलाल भी अब अंतर्कलह के रूप में मुखरित हुआ। पार्टी की पराजय और आसन्न विधानसभा चुनाव को लेकर बैठक में जो मंथन हुआ, उस मंथन में अमृत की जगह टकराव के बीज ही निकले। दरअसल, हरियाणा में दिग्गज नेताओं का टकराव लंबे समय से चला आ रहा है। जिसको लेकर राज्य पार्टी अध्यक्ष निशाने पर हैं और मंथन बैठक में प्रदेश अध्यक्ष डॉ. अशोक तंवर के इस्तीफे की मांग उठी, जिसके चलते हंगामेदार बैठक बेनतीजा रही।
कमोबेश यही स्थिति पंजाब की भी है। ऐन चुनाव के दिन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंदर सिंह ने विवादित मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू की महत्वाकांक्षा को उजागर करते हुए कह दिया कि वह मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं। हालांकि यह टकराव पंजाब में लंबे समय से चला आ रहा है। वैसे भी राजनीति में कब प्यादे सिपहसालार बन जाएं, कहा नहीं जा सकता। इसके बावजूद सिद्धू केंद्रीय नेतृत्व का वरदहस्त पाकर मजबूत स्थिति में मंत्रिमंडल में शामिल हुए थे। फिर लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें जिस तरह स्टार प्रचारक के तौर पर प्रस्तुत किया, उससे उनकी महत्वाकांक्षाओं का उभार स्वाभाविक था। कांग्रेस का राज्य नेतृत्व आरोप लगाता रहा है कि प्रियंका गांधी की रैलियों के अलावा राज्य में प्रचार से सिद्धू कन्नी काटते रहे। गले में परेशानी बताते रहे। दरअसल, सिद्धू की राजनीतिक महत्वाकांक्षा तभी उजागर हो गई थी जब उन्होंने राज्यस्तर पर पार्टी की नीति से हटकर करतारपुर कॉरिडोर मामले में मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंदर सिंह से अलग लाइन ली। बाकायदा उन्होंने सार्वजनिक रूप से कैप्टन को नकारते हुए कहा था कि उनके कैप्टन तो राहुल गांधी हैं। जाहिर है राजनीति के पुराने खिलाड़ी कैप्टन को यह बयान नागवार गुजरा होगा। हालिया विवाद बढऩे पर कैप्टन सरकार के कई मंत्री खुलकर सिद्धू के विरोध में सामने आ गये। मोदी लहर के बावजूद पंजाब में कांग्रेस की जड़ें मजबूत करने वाले कैप्टन अमरेंदर को नाराज करना भी केंद्रीय नेतृत्व के लिये आसान नहीं है। ऐसे में यह टसल लगातार जारी रही है, जिसे हालिया आम चुनाव ने और बढ़ा दिया। यहां तक कि एक सीट पर हार का ठीकरा कैप्टन ने सिद्धू के सिर भी फोड़ा। फिलहाल यह तल्खी कम होती नजर नहीं आ रही है। दरअसल, कांग्रेस में सत्ता के जो कई केंद्र बने हुए हैं, वे अपनी पकड़ मजबूत बनाने के लिये अंतर्कलह का हिस्सा बने हुए हैं।

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