यही से शुरू हुई थी नक्सलियों के खिलाफ स्वस्फूर्त आंदोलन जिसे बाद में सलवा जुडूम का नाम दे दिया गया

यही से शुरू हुई थी नक्सलियों के खिलाफ स्वस्फूर्त आंदोलन जिसे बाद में सलवा जुडूम का नाम दे दिया गया

राजेश झाड़ी

  • नक्सलियों के खिलाफ ग्रामीणों की यह स्वस्फूर्त लड़ाई राजनीतिकरण का शिकार हो गया

  • जिस गांव से उठे थे नक्सलियों के खिलाफ स्वर, बदली नहीं तस्वीर उस, अम्बेली गाँव की

बीजापुर(नवप्रदेश)। 5 मई सन 2005 को गुरूवार का दिन था और ठीक इसके कुछ दिन पहले भैरमगढ़ के पास बेलचर गांव में नक्सलियों ने जवानों से भरी 407 वाहन को निशाना बनाकर आईईडी ब्लास्ट किया था, जिसमें सात जवान शहीद हो गए थे, जिसके बाद जवानों ने आस-पास के इलाके में मारपीट शुरू कर दी थी। इस घटना से परेशान होकर 5 जून 2005 को बेदरे मार्ग पर स्थित अम्बेली गांव में ग्रामीणों ने एक बैठक आहुत कर नक्सलियों के खिलाफ लडऩे का निर्णय लिया था और यही से शुरू हुई थी नक्सलियों के खिलाफ स्वस्फूर्त आंदोलन जिसे बाद में सलवा जुडूम का नाम दे दिया गया और नक्सलियों के खिलाफ ग्रामीणों की यह स्वस्फूर्त लड़ाई राजनीतिकरण का शिकार हो गया।
परिणामस्वरूप इस आंदोलन को शुरू करने का विचार करने वाले अम्बेली गांव के सात ग्रामीणों का नक्सलियों ने अपहरण कर लिया और कुछ दिन बाद उनकी हत्या कर दी। नक्सलियों के खिलाफ शुरू किए गए इस आंदोलन से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अब संपूर्ण बस्तर में नक्सलवाद नाम का आतंक के साथ नक्सलियों का सफाया हो जाएगा, परंतु सुप्रीम कोर्ट ने इसे हिंसक आंदोलन करार देते हुए इस पर प्रतिबंध लगा दिया और इसे बंद कर दिया गया। परंतु तीन साल तक इस आंदोलन के चलते कई लोग नक्सलियों के हाथों मारे गए तो सैकड़ों गांव जुडूम के लोगां ने अपने हाथों से उजाड़ दिए, नतीजतन हजारों ग्रामीण घर से बेघर हो गए तो कई ग्रामीणों के हाथों उनका कई वर्षों से बना बनाया जमीन जायदाद तक छूट गया, बावजूद आज भी इस आंदोलन को शुरू करने वाले गांव अम्बेली और करकेली की तस्वीर आज भी वैसे ही है। जैसे 2005 और उससे पहले था। जिस गांव की सोच को सरकार ने हाथों हाथ लेकर नक्सलियों के खिलाफ एक बड़ी फौज खड़ी की थी और आज उसी गांव की सुध लेने के लिए सरकार का कोई भी नुमाइंदा अम्बेली तक नहीं पहुंच पाता है, जिसके चलते आज भी अम्बेली में माओवादियों का प्रभाव बना हुआ है।

गांव में नहीं है बिजली, पानी और स्वास्थ्य सेवाएं

इस गांव से होकर पक्की सड़क बेदरे तक बन तो रही है, परंतु इस गांव में बिजली, पानी और स्वास्थ्य सेवाओं जैसी कोई भी सुविधाएं दूर-दूर तक नजर नहीं आती। क्षेत्र के लोग बताते हैं कि आज भी इस गांव में माओवादी जब भी आते हैं तो सलवा जुडूम शुरू करने के बदले ग्रामीणों को जमकर प्रताडि़त करते हैं।

नक्सलियों के हाथों गवा रहें है जान

सरकार ने बेस कैम्पों के माध्यम से हजारों ग्रामीणों को राष्टीय राजमार्ग तथा अन्य स्थानों पर लाकर बसा तो दिया, परंतु लचर व्यवस्था और अनदेखी के चलते जहां कई ग्रामीणों को नक्सलियों के हाथों जान गंवानी पड़ी, वही दाने – दाने को मोहताज होकर लोगों को बेस कैम्पों से वापस नक्सलियों की शरण में अपने गांव लौटना पड़ा।

विकास का नारा दूर-दूर तक नहीं

करीब डेढ़ से दो सौ की आबादी वाले अम्बेली गांव कहलाने को बेदरे को जोड़ती कच्ची सड़क के किनारे बसी हुई है, लेकिन कच्ची सड़क के सहारे ही विकास गांव का होना था, वह जुडूम खत्म होने के बाद भी नहीं हो सका है। कुटरू और करकेली इन दो बसाहटो के बीच अम्बेली गांव आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है।

सड़क निर्माण के बाद भी नक्सलियों का भय अब भी कायम

रोजमर्रा की जरूरतें आज भी कुटरू अथवा करकेली में भरने वाले साप्ताहिक बाजार से ही पूरी हो पाती है। घनी आबादी ना होने के बावजूद ग्रामीणो की छोटी-मोटी जरूरतें बड़ी मुश्किल से पूरी हो पाती है। हालांकि कुटरू को बेदरे से जोड़ी कच्ची सड़क पर अब भी नक्सलियों का प्रभाव है। हालात ऐसे है कि वर्षों बाद भी इस सड़क पर नक्सलियों के भय से आवागमन की सुविधा नहीं मिलती है।

बेदरे गांव अभी सरकार की पहुंच से कोसो दूर

बेदरे तक आवागमन सुविधा के नाम पर इकलौती बस है, परंतु पिछले पंद्रह दिनों से वह भी बंद है। ग्रामीणों का आरोप हैं कि जुडूम से निर्मित हालात से जैसे-तैसे उबरने के बाद भी अब भी वे सरकार की पहुंच से कोसो दूर है। जिन हालातों में वे जी रहे हैं, उनकी पीड़ा को करीब से जानने ना तो प्रशासन का कोई नुमाइंदा या पहुंचता है और ना ही जनप्रतिनिधि। स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं के विस्तार पर कोई ध्यान नहीं दिया गया, नतीजतन मरीज आज भी खाट पर लिटाकर कुटरू पहुंचाने की मजबूरी बनी हुई है।

सरकारी उदासीनता के कारण आंदोलन बिना परिणाम के खत्म

विकास के नाम पर गांव की बस्तियां में नए निर्माण कार्य दरकिनार है, रोजगार तो दूर की बात। ग्रामीणों का कहना हैं कि सरकार की इस बेरूखी के चलते अम्बेली की तस्वीर आज भी वैसी है जैसे जुडूम से पहले थी। इधर, सलवा जुडूम में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने वाले और इस आंदोलन को आगे तक लेकर चलने वाले जुडूम नेता रहे कुटरू के मधुकर राव बताते हैं कि उस दौरान नक्सलियों ने सलवा जुडूम की सोच को लोगों तक पहुंचाने वाले सात लोगों की हत्या कर दी थी, आंदोलन काफी हद तक सही दिशा में चलाया गया था, परंतु सरकार की उदासीनता के चलते यह आंदोलन बिना परिणाम के ही खत्म हो गया।

सुविधाओं के लिए मोहताज है

आज यह आलम है कि आज भी अम्बेली गांव में नक्सलियों का उतना ही दबदबा और पहुंच है जितना जुडूम से पहले था और आज भी नक्सली सलवा जुडूम के नाम पर गांव वालों को हमेशा प्रताडि़त कर सुविधाओं से मोहताज है।

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